महाकुंभ का इतिहास (महाकुंभ मेले का इतिहास)
महाकुंभ मेला हिंदू धर्म का एक प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन है, जिसका इतिहास प्राचीन वेदों और पुराणों से जुड़ा है। इसे विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला माना जाता है। महाकुंभ मेले का आयोजन चार पवित्र स्थलों—प्रयागराज (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक—में हर 12 वर्षों के अंतराल पर होता है।
महाकुंभ का धार्मिक आधार
महाकुंभ मेले का उल्लेख वेदों, उपनिषदों और पुराणों में मिलता है। इस मेले की परंपरा
समुद्र मंथन की कहानी से जुड़ी हुई है। पौराणिक कथा के अनुसार, देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया था। अमृत कलश को लेकर देवता और असुरों के बीच संघर्ष हुआ, और इस दौरान अमृत की बूंदें चार स्थानों—प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक—पर गिरीं। इन स्थानों को पवित्र माना गया और यहीं कुंभ मेले की परंपरा की शुरुआत हुई।
महाकुंभ का ऐतिहासिक उल्लेख
प्राचीन काल: - महाकुंभ मेले का उल्लेख ऋग्वेद, अथर्ववेद और महाभारत में मिलता है। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में कुंभ मेले की परंपरा को व्यवस्थित किया। म
ध्यकाल: चीनी यात्री ह्वेनसांग (7वीं शताब्दी) ने अपने यात्रा वृतांत में प्रयागराज में होने वाले महाकुंभ मेले का वर्णन किया है।
आधुनिक काल: - ब्रिटिश काल में कुंभ मेले का विस्तार हुआ। 19वीं शताब्दी में इसे संगठित रूप दिया गया और इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल होने लगे।
महाकुंभ मेले का आयोजन
महाकुंभ का आयोजन ग्रहों की स्थिति के आधार पर तय होता है।
- प्रयागराज: गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर।
- हरिद्वार: गंगा नदी के किनारे।
- उज्जैन: क्षिप्रा नदी के तट पर।
- नासिक: गोदावरी नदी के तट पर।
महत्व और परंपराएं
महाकुंभ में पवित्र नदियों में स्नान करना आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति का प्रतीक माना जाता है। इस दौरान नागा साधुओं की शोभायात्रा, प्रवचन, भजन-कीर्तन और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं।
आज का महाकुंभ
महाकुंभ मेला अब केवल धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, परंपरा और आध्यात्मिकता का प्रतीक बन चुका है। इसे यूनेस्को ने अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता दी है।
महाकुंभ का अगला आयोजन प्रयागराज में 2025 में होने वाला है।